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प्रख्यात शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी का कोलकाता के बिड़ला अस्पताल में रात करीब साढ़े नौ बजे निधन हो गया| सुबह उन्हें तबीयत बिगड़ने पर अस्पताल में भर्ती कराया गया था| मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक गिरिजा देवी पिछले कुछ दिनों से बीमार थीं| मंगलवार सुबह उन्होंने छाती में दर्द की शिकायत की| परिजन उन्हें तुरंत बीएम बिड़ला हार्ट रिसर्च सेंटर ले गए जहां चिकित्सकों ने उन्हें तत्काल भर्ती कर लिया| देर शाम थोड़ा सुधार हुआ तो लेकिन फिर रात में करीब आठ बजे स्थिति नाजुक हो गई| उन्होंने रात मेें करीब साढ़े नौ बजे उन्होंने अंतिम सांस ली|
ठुमरी क्वीन के नाम से प्रसिद्ध गिरिजा देवी को शास्त्रीय संगीत में उनके उल्लेखनीय अवदान के लिए 1972 में पद्मश्री, 1989 में पद्म भूषण एवं 2016 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था| इसके अलावा संगीत नाटक एकेडमी अवार्ड, महा संगीत सम्मान अवार्ड समेत कई ढेरों पुरस्कारों से भी नवाजा जा चुका है|
उनकी एक कजरी "बरसन लगी" खासी मशहूर रही| ध्रुपद, ख़्याल, टप्पा, तराना, सदरा, ठुमरी और पारम्परिक लोक संगीत में होरी, चैती, कजरी, झूला, दादरा और भजन से वे लोगों को अपनी गायकी का मुरीद बनाती रहीं. भारतीय शास्त्रीय संगीत में वे एकमात्र ऐसी गायिका हैं, जिन्होंने पूरब अंग की गायकी का जादू पूरी दुनिया में बिखेरा|
कला समीक्षक विनय उपाध्याय को हाल ही में दिए साक्षात्कार में गिरिजा देवी ने अपने बारे में बताया था, "पिता मुगलसराय (उत्तरप्रदेश) के पुश्तैनी गांव को छोड़कर चक सोहदवार होते हुए बनारस आए| वहां मेरा (गिरिजा का) जन्म हुआ| पिता जी को संगीत में बहुत दिलचस्पी थी| वे ज़मीदारों के यहां गाने-बजाने जाते थे| मेरे कान में भी यह सुर-संगीत पड़ता था| एक दिन मेरे कंठ में भी समा गया| पिता को सहज ही खुशी हुई| मेरी संभावना को उन्होंने पहचान लिया| उस समय के संगीत मनीषी पंडित सरयू प्रसाद को मेरी तालीम के लिए निवेदन किया| इस बीच पिताजी को बनारस छोड़ना पड़ा लेकिन मुझे वहीं बसा दिया| गुरु-दीक्षा के साथ बनारस के मंदिरों में होने वाले बड़े कलाकारों के गायन-वादन को सुनकर मेरा मन संगीत के नए सबक अर्जित करने लगा| विश्वनाथ मंदिर और संकट मोचन मंदिर मेरे लिए संगीत के तीर्थ साबित हुए| वहीं मैंने एक दिन सिद्धेश्वरी देवी को गाते हुए सुना| मेरा मन दूसरी किताबें पढ़ने में नहीं लगता था| रात-दिन संगीत में ही रमी रहती| जैसे-तैसे मैंने दसवीं का दर्ज़ा पास किया|"
उन्होंने आगे बताया था, "सन् 1949 में मैं बीस बरस की हो गई| इलाहाबाद में रेडियो स्टेशन खुल चुका था| वहां पंडित रविशंकर थे| मुझे पहली बार प्रस्तुति का मौका मिला| मेरी प्रस्तुति से वे बहुत प्रभावित हुए| उनकी तारीफ से मेरा हौसला बढ़ा| दो वर्ष बाद आरा (बिहार) में एक बहुत बड़ा संगीत समारोह हुआ| आला दर्ज़े के नर्तक संगीतकार आमंत्रित थे| एक सभा में जब अचानक पंडित ओंकारनाथ ठाकुर नहीं आए तो उनकी जगह मुझे गायन के लिए बैठा दिया| पहले तो मैं घबरा गई, लेकिन जब मैंने बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए गाया तो सुनकर मुझे कलाकारों-श्रोताओं ने सिर माथे बैठा लिया| कहने लगे कि यह बंदिश तो गिरिजा के कंठ से सिद्ध हो गई| मेरी प्रसिद्धि को अचानक पंख लग गए|"
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