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| गुरू नानक जयन्ती, 10 सिक्ख गुरूओं के गुरू पर्वों या जयन्तियों में सर्वप्रथम है। यह सिक्ख पंथ के संस्थापक गुरू नानक देव, जिन्होंने धर्म में एक नई लहर की घोषणा की, की जयन्ती है। 10 गुरूओं में सर्व प्रथम गुरू नानक का जन्म 1469 में लाहौर के निकट तलवंडी में हुआ था। इनके पिता का नाम कल्यानचंद या मेहता कालू जी था, माता का नाम तृप्ता देवी था। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया। इनकी बहन का नाम नानकी था। बचपन से इनमें प्रखर बुद्धि के लक्षण दिखाई देने लगे थे। लड़कपन ही से ये सांसारिक विषयों से उदासीन रहा करते थे। पढ़ने लिखने में इनका मन नहीं लगा। ७-८ साल की उम्र में स्कूल छूट गया क्योंकि भगवत्प्रापति के संबंध में इनके प्रश्नों के आगे अध्यापक ने हार मान ली तथा वे इन्हें ससम्मान घर छोड़ने आ गए। तत्पश्चात् सारा समय वे आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में व्यतीत करने लगे। बचपन के समय में कई चमत्कारिक घटनाएं घटी जिन्हें देखकर गाँव के लोग इन्हें दिव्य ऴ्यक्तित्व मानने लगे। बचपन के समय से ही इनमें श्रद्धा रखने वालों में इनकी बहन नानकी तथा गाँव के शासक राय बुलार प्रमुख थे। इनका विवाह सोलह वर्ष की अवस्था में गुरदासपुर जिले के अंतर्गत लाखौकी नामक स्थान के रहनेवाले मूला की कन्या सुलक्खनी से हुआ था। ३२ वर्ष की अवस्था में इनके प्रथम पुत्र श्रीचंद का जन्म हुआ। चार वर्ष पीछे दूसरे पुत्र लखमीदास का जन्म हुआ। दोनों लड़कों के जन्म के उपरांत १५०७ में नानक अपने परिवार का भार अपने श्वसुर पर छोड़कर मरदाना, लहना, बाला और रामदास इन चार साथियों को लेकर तीर्थयात्रा के लिये निकल पडे़। समाज में कई धर्मों के चलन व विभिन्न देवताओं को स्वीकार करने के प्रति अरुचि ने व्यापक यात्रा किए हुए नेता को धार्मिक विविधता के बंधन से मुक्त होने, तथा एक प्रभु जो कि शाश्वत सत्य है के आधार पर धर्म स्थापना करने की प्रेरणा दी। गुरू नानक जयन्ती के त्यौहार में, तीन दिन का अखण्ड पाठ, जिसमें सिक्खों की धर्म पुस्तक "गुरू ग्रंथ साहिब" का पूरा पाठ बिना रुके किया जाता है, शामिल है। मुख्य कार्यक्रम के दिन गुरू ग्रंथ साहिब को फूलों से सजाया जाता है, और एक बेड़े (फ्लोट) पर रखकर जुलूस के रूप में पूरे गांव या नगर में घुमाया जाता है। शोभायात्रा की अगुवाई पांच सशस्त्र गार्डों, जो Сपंज प्यारोंТ का प्रतिनिधित्व करते हैं, तथा निशान साहब, अथवा उनके तत्व को प्रस्तुत करने वाला सिक्ख ध्वज, लेकर चलते हैं, द्वारा की जाती है। पूरी शोभायात्रा के दौरान गुरूवाणी का पाठ किया जाता है, अवसर की विशेषता को दर्शाते हुए, गुरू ग्रंथ साहिब से धार्मिक भजन गाए जाते हैं। शोभायात्रा अंत में गुरूद्वारे की ओर जाती है, जहां एकत्रित श्रद्धालु सामूहिक भोजन, जिसे लंगर कहते हैं, के लिए एकत्रित होते हैं। गुरू नानक देव जी एक महान क्रान्तिकारी, समाज सुधारक और राष्ट्रवादी गुरू थे. गुरू नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु Ц सभी के गुण समेटे हुए थे. नानक सर्वेश्वरवादी थे. मूर्तिपूजा को उन्होंने निरर्थक माना. रूढ़ियों और कुसंस्कारों के विरोध में वे सदैव तीखे रहे | धर्म, समाज एवं देश की अधोगति को उन्होंने अनुभव किया. निरंतर छिन्न-भिन्न होते जा रहे सामाजिक ढांचे को अपने हृदयस्पर्शी उपदेशों से उन्होंने पुन: एकता के सूत्र में बांध दिया. उन्होंने लोगों को बेहद सरल भाषा में समझाया कि सभी इंसान एक दूसरे के भाई हैं. ईश्वर सबका साझा पिता है. फिर एक पिता की संतान होने के बावजूद हम ऊंच-नीच कैसे हो सकते हैं. उल्लेखनीय बात यह है कि गुरू जी ने इन उपदेशों को अपने जीवन में अमल में लाकर स्वयं एक आदर्श बन सामाजिक सद्भाव की मिसाल कायम की. उन्होंने लंगर की परंपरा चलाई जहां कथित अछूत लोग जिनके सामीप्य से कथित उच्च जाति के लोग बचने की कोशिश करते थे, उन्हीं ऊंच जाति वालों के साथ बैठकर एक पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे. आज भी सभी गुरू द्वारों में गुरू जी द्वारा शुरू की गई यह लंगर परंपरा कायम है. लंगर में बिना किसी भेदभाव के संगत सेवा करती है. जीवन भर देश विदेश की यात्रा करने के बाद गुरू नानक अपने जीवन के अंतिम चरण में अपने परिवार के साथ करतारपुर बस गए थे. गुरू नानक ने 25 सितंबर, 1539 को अपना शरीर त्यागा. जनश्रुति है कि नानक के निधन के बाद उनकी अस्थियों की जगह मात्र फूल मिले थे. इन फूलों का हिन्दू और मुसलमान अनुयायियों ने अपनी अपनी धार्मिक परंपराओं के अनुसार अंतिम संस्कार किया. धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड, अंधविश्वास और कर्मकाण्डों का गुरू जी ने सख्त विरोध किया. आधुनिक समय में भी गुरूनानक देव जी के उपदेश उतने ही प्रासंगिक हैं. हमें समाज में फैले वैमनस्य, कुरीतियों आडम्बरों के विरुद्ध तो संघर्ष करना ही है साथ ही साम्प्रदायिकता, जातिवाद के विष से सचेत रहकर हर हालत में आपसी एकता, भाई-बंधुत्व भी बनाए रखना है. श्री गुरुनानक देव जी ने स्वयं किसी धर्म की स्थापना नहीं की। उनके बाद आये गुरुओं से अपने समय की स्थितियों को देखकर सिख पंथ की स्थापना भी भारतीय धर्म और संस्कृति कि रक्षा के लिये की थी। श्री गुरुनानक देव जी का जीवन सदैव समाज चिंतन और सुधार में बीता। बहुत कम लोग हैं जो आज के सभ्य भारतीय समाज में उनकी भूमिका का सही आंकलन कर पाते हैं। उनके काल में भारतीय समाज अंधविश्वासों और कर्मकांडों के मकड़जाल में फंसा हुआ था। कहने को लोग भले ही समाज की रीतियां निभा रहे थे पर अपने धर्म और संस्कृति कि रक्षा के लिये उनके पास कोई ठोस योजना नहीं थी। राजनीतिक रूप से विदेशी आक्रांता अपना दबाव इस देश पर बढ़ा रहे थे। इन्हीं आक्रान्ताओं के साथ आये कथित विद्वान सामान्य जनों को अपनी विचारधारा के अनुरूप माया मोह की तरफ दौड़ाते दिखे। देश के अधिकतर राजाओं का जीवन प्रजा की भलाई की बजाय अपने निजी राग द्वेष में बीत रहा था। वह राज्य के व्यवस्थापक का कर्तव्य निभाने की बजाय उसके उपभोग के अधिकार में अधिक संलग्न थे। यही कारण था कि जन असंतोष के चलते विदेशी राजाओं ने उनको हराने का सिलसिला जारी रखा। इधर सामान्य लोग भी अपने कर्मकांडो में ऐसे लिप्त रहे उनके लिये Сकोई नृप हो हमें का हानिТ की नीति ही सदाबहार थी।
मुख्य विषय यह था कि समाज धीरे धीरे विदेशी मायावी लोगों के जाल में फंसता जा रहा था और अपने अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति उसका कोई रुझान नहीं था। ऐसे में महान संत श्री गुरुनानक देव जी ने प्रकट होकर समाज में अध्यात्मिक चेतना जगाने का जो काम किया वह अनुकरणीय है। वैसे महान संत कबीर भी इसी श्रेणी में आते हैं। हम इन दोनों महापुरुषों का जीवन देखें तो न वह केवल रोचक, प्रेरणादायक और समाज के लिये कल्याणकारी है बल्कि सन्यास के नाम पर समाज से बाहर रहने का ढोंग करते हुए उसकी भावनाओं का दोहन करने वाले ढोंगियों के लिये एक आईना भी है| गुरुनानक देव और कबीरदास जी के भक्त ही उनका ज्ञान धारण कर इस असलियत को समझ सकते हैं। इन दोनों महापुरुषों ने पूरा जीवन समाज में रहकर समाज के साथ व्यतीत किया। भारतीय अध्यात्मिक संदेश अपने पांवों पर अनेक स्थानों घूमते हुए सभी जगह फैलाया। श्री गुरुनानक देव जी तो मध्य एशिया तक की यात्रा कर आये। आज धर्मों के जो नाम मिलते हैं वह एक सोचीसमझी साजिश के तहत समाज को बांटकर उस पर शासन करने की नीति का परिणाम है। श्रीगुरुनानक देव जी के समय इस देश में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक दृष्टि से संक्रमण काल था। वह जानते थे कि भौतिकवाद की बढ़ती प्रवृत्ति ही इस समाज के लिये सबसे बड़ा खतरा है और जिसमें धार्मिक कर्मकांड और अंधविश्वास अपनी बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इससे व्यक्ति की चिंतन क्षमता का ह्रास होता है और वह बहिर्मुखी होकर दूसरे का गुलाम बन जाता है। भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता मनुष्य को दास बना देती है। अधिक संचय की प्रवृत्ति से बचते हुए दान, सेवा और परोपकार करने से ही समाज समरसता आयेगी जिससे शांति और एकता का निर्माण होगा-यही उनके संदेशों का सार था। सबसे बड़ी बात उनका जोर व्यक्ति निर्माण पर था। हम अगर इस पर विचार करें तो पायेंगे कि व्यक्ति मानसिक रूप से परिपक्व, ज्ञानी और सजग होगा तो भले ही वह निर्धन हो उसे कोई भी दैहिक तथा मानसिक रूप से बांध नहीं सकता। यदि व्यक्ति में अज्ञान, अहंकार तथा विलासिता का भाव होगा तो कोई भी उसे पशु की तरह बांध कर ले जा सकता है। आज हम देख सकते हैं कि टीवी चैनलों पर कल्पित पात्रों पर लोग किस तरह थिरक रहे हैं। उसी में अपने नये भगवान बना लेते हैं। कई युवक युवतियों यह कहते हुए टीवी पर देखे जा सकते हैं कि हम तो अमुक बड़ी हस्ती को प्यार करते हैं। यह अध्यात्मिक ज्ञान से दूरी का परिणाम है। इसलिये आवश्यकता इस बात है कि बजाय हम इस बात पर विचार करें कि दूसरे धर्म के लोग हमारे विरोधी हैं इस बात पर अधिक जोर देना चाहिये कि हमारे समाज का हर सदस्य दिमागी रूप से परिपक्व हो। अध्यात्मिक रूप से अपरिपक्व युवक हो युवती समाज रक्षा में सहयोगी नहीं बन सकते।
गुरुनानक देव जी के सिद्धांत सिख धर्म के अनुयायियों द्वारा आज भी प्रासंगिक है, जो निम्न हैं:
* ईश्वर एक है।
* एक ही ईश्वर की उपासना करनी चाहिए। * ईश्वर, हर जगह व हर प्राणी में मौजूद है। * ईश्वर की शरण में आए भक्तों को किसी प्रकार का डर नहीं होता। * निष्ठा भाव से मेहनत कर प्रभु की उपासना करें। * किसी भी निर्दोष जीव या जन्तु को सताना नहीं चाहिए। * हमेशा खुश रहना चाहिए। * ईमानदारी व दृढ़ता से कमाई कर, आय का कुछ भाग जरूरतमंद को दान करना चाहिए। * सभी मनुष्य एक समान हैं, चाहे वे स्त्री हो या पुरुष। * शरीर को स्वस्थ रखने के लिए भोजन आवश्यक है, लेकिन लोभी व लालची आचरण से बचें है। |