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| संत कबीरदास का जन्म सन 1398 में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन वाराणसी के पास लहरतरा विस्तार में हुआ था। इनके जन्म के सम्बध में कहा जाता है कि कबीर काशी की एक ब्राह्मणी विधवा की सन्तान थे। समाज के डर से ब्राह्मणी ने अपने नवजात पुत्र को एक तालाब के किनारे छोड दिया था । ऐसा कहा जाता है कि नीमा ब्याह कर के नीरू संग अपने ससुराल बनारस जा रही थी, तभी रास्ते में लहरतरा विस्तार में सरोवर के पास वह सब विश्राम कर रहे होते हैं। तभी सरोवर की और से किसी नवजात शिशु के रोने की आवाज आती है, और तभी वहाँ सरोवर पर कमल के पुष्प में लिपटा हुआ शिशु रो रहा होता है। नीमा उस के पास जा कर उस शिशु को अपने हाथों में उठा लेती है, और साथ खड़ा नीरू बच्चे को साथ ले जाने को कहते है। क्षणिक दोनों के मन में यह विचार आता है के समाज क्या कहेगा। और लोग क्या सोचेंगे। पर अंत में नीमा और नीरू बच्चे को अपने साथ ले-जाने का निश्चय करते हैं। यही बालक बड़ा हो कर महान ज्ञानी संत कबीरदास के नाम से जाना जाता है। कबीर का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या "लोई' के साथ हुआ था और संत कबीरदास के दो संतान थे। संत कबीरदास के पुत्र का नाम कमाल था और उनकी पुत्री का नाम कमाली था। ऐसा भी कहा जाता है की कबीर जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिंदू धर्म का ज्ञान हुआ। कबीर के ही शब्दों में- Уहम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये'।У काशी घाट पर कबीरदास एक बार सीढियों से गिर पड़े थे, तभी रामानद जी के चरण स्पर्श होने से खुद को धन्य माना, और रामानद जी को अपना गुरु मान लिया था। और दूसरी कथा अनुसार ऐसा भी कहा जाता है के उन दिनो रामनंद स्वामी ने अत्याचार और कुरीतियों के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा था उनसे प्रभावित हो कर संत कबीरदास उनसे मिलने गए थे। और उन्हे अपना गुरु बना लिया था। कुछ मान्यताओ के साथ ऐसा भी कहा जाता है के संत कबीरदास रामानद से मिलने उनके आश्रम गए थे। पर वहाँ जा कर उन्हे पता चलता है के रामानद स्वामी मुस्लिम युवक से नहीं मिलेंगे। इसी लिए संत कबीरदास रामानद स्वामी को काशी घाट पर मिले थे। और वहीं उन्हे अपना गुरु बनाया था। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे इसलिए उनका ज्ञान पुस्तकीय या शास्त्रीय नहीं था | अपने जीवन में उन्होंने जो अनुभव किया, जो साधना से पाया, वही उनका अपना ज्ञान था | जो भी ज्ञानी विद्वान उनके संपर्क में आते उनसे वे कहा करते थे- "तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखों की देखी" उनके अनुसार सैकड़ो पुस्तकें पढ़ने के बजाय वे प्रेम का ढाई अक्षर पढ़कर स्वयं को धन्य समझते थे | कबीर को बाह्य आडम्बर, दिखावा और पाखंड से चिढ़ थी | मौलवियों और पंडितो के कर्मकांड उनको पसंद नहीं थे | मस्जिदों में नमाज पढ़ना, मंदिरों में माला जपना, तिलक लगाना, मूर्तिपूजा करना रोजा या उपवास रखना आदि को कबीर आडम्बर समझते थे | कबीर सादगी से रहना, सादा भोजन करना पसंद करते थे | बनावट उन्हें अच्छी नहीं लगती थी | अपने आस-पास के समाज को वे आडम्बरो से मुक्त बनाना चाहते थे | साधू-संतो के साथ कबीर इधर-उधर घुमने जाते रहते थे | इसलिए उनकी भाषा में अनेक स्थानों की बोलियों के शब्द आ गये है | कबीर अपने विचारो और अनुभवों को व्यक्त करने के लिए स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग करते थे | कबीर की भाषा को "सधुक्कड़ी" भी कहा जाता है | कबीर अपनी स्थानीय भाषा में लोगो को समझाते, उपदेश देते थे | जगह-जगह पर उदाहरण देकर अपनी बातो को लोगो के अंतरमन तक पहुँचाने का प्रयास करते थे | कबीर की वाणी को साखी, सबद और रमैनी तीनो रूपों में लिखा गया है जो "बीजक" के नाम से प्रसिद्ध है | कबीर ग्रन्थावली में भी उनकी रचनाएँ संग्रहित है | हिंदी साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है। गोस्वामी तुलसीदास को छोड़ कर इतना महिमामण्डित व्यक्तित्व कबीर के सिवा अन्य किसी का नहीं है। कबीर की उत्पत्ति के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कबीर की दृष्टि में गुरु का स्थान भगवान से भी बढ़कर है | एक स्थान पर उन्होंने गुरु को कुम्हार बताया है, जो मिटटी के बर्तन के समान अपने शिष्य को ठोक-पीटकर सुघड़ पात्र में बदल देता है | सज्जनों, साधु-संतो की संगति उन्हें अच्छी लगती थी | यद्यपि कबीर की निन्दा करने वाले लोगो की संख्या कम नहीं थी लेकिन कबीर निन्दा करने वाले लोगो को अपना हितैषी समझते थे- निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय | बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय || कबीर सत्य बोलने वाले निर्भीक व्यक्ति थे | वे कटु सत्य भी कहने में नहीं हिचकते थे | उनकी वाणी आज के भेदभाव भरे समाज में मानवीय एकता का रास्ता दिखने में सक्षम है | हिन्दू, मुसलमान, ब्राह्मण, शुद्र, धनी, निर्धन सबका वही एक प्रभु है| सभी की बनावट में एक जैसी हवा, खून, पानी का प्रयोग हुआ है | भूख, प्यास, सर्दी, नींद सभी की जरूरतें एक जैसी है| सूरज प्रकाश और गर्मी सभी को देता है, वर्षा का पानी सभी के लिए है, हवा सभी के लिए है सभी एक ही आसमान के नीचे रहते है| इस तरह जब सभी को बनाने वाला ईश्वर, किसी के साथ भेद - भाव नहीं करता तो फिर मनुष्य - मनुष्य के बीच ऊँच - नीच, धनी - निर्धन, छुआ - छूत का भेद - भाव क्यों है ? ऐसे ही कुछ प्रश्न कबीर के मन में उठते थे जिनके आधार पर उन्होंने मानव मात्र को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी | कबीर ने अपने उपदेशो के द्वारा समाज में फैली बुराइयों का कड़ा विरोध किया और आदर्श समाज की स्थापना पर बल दिया | कबीर के समय में हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है। उस समय लोगो के बीच में ऐसी धारणा फैली हुई थी कि मगहर में मरने से नरक मिलता है | इसलिए कबीर अपनी मृत्यु निकट जानकर काशी से मगहर चले गये और समाज में फैली हुई इस धारणा को तोड़ा | सन 1518 ई. में उनका निधन हो गया | कहा जाता है कि उनके शव को लेकर विवाद हुआ | हिन्दू अपनी प्रथा के अनुसार शव को जलाना चाहते थे और मुस्लिम शव को दफनाना चाहते थे | शव से जब चादर हटाकर देखा गया तो शव के स्थान पर कुछ फूल मिले | हिन्दू-मुसलमान दोनों ने फूलों को बाँट लिया और अपने विश्वास और आस्था के अनुसार उनका संस्कार किया | 119 वर्ष की अवस्था में उन्होंने मगहर में देह त्याग किया। |