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| हालांकि नवरात्री साल में दो बार मनाई जाती है, परन्तु पंचाग के अनुसार नवरात्री साल में चार बार पौष, चैत्र, आषाढ व अश्विन महिनों की एकम् से नवमी तक के समय में मनाई जाती है | लेकिन हम विशेषकर चैत्र मास व आश्विन मास की नवरात्रि को ही अधिक महत्व देकर मानते है | इसी के साथ दिपावली से पहले आने वाली आश्विन मास की नवरात्रि को भारतीय संस्कृति में अत्यधिक महत्व प्राप्त है क्योंकि पितृपक्ष के 16 दिनों की समाप्ति के बाद आश्विन मास की नवरात्रि का आगमन होता है और इसी नवरात्रि से सम्पूर्ण भारत में लगातार त्योहारों का समय शुरू हो जाता है जो कि दिपावली तक चलता है और इसीलिए आश्विन मास की इस नवरात्रि को हिन्दु धर्म में अति महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। नवरात्रि शब्द संस्कृत भाषा के दो शब्दों नव व रात्रि से मिलकर बना है जो इस त्यौहार के लगातार नौ रातों तथा दस दिनों तक मनाए जाने को बताता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार दुर्गा का मतलब जीवन के दु:ख कॊ हटानेवाली होता है और नवरात्रि, मां दुर्गा को अर्पित एक महत्वपूर्ण प्रमुख त्योहार है जिसे सम्पूर्ण भारतवर्ष में अत्यधिक उत्साह के साथ मनाया जाता है। नवरात्रि में शक्ति के नौ रूपों को ही मुख्य रूप से पूजा जाता है, जो इस प्रकार है - शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा देवी, कूष्मांडा देवी, स्कंद माता, कात्यायनी, मां काली, महागौरी और सिद्धिदात्री | जिस प्रकार नवरात्रि के नौ दिन पूजनीय होते हैं उसी तरह नौ अंक भी प्राकृत होते हैं। शून्य से लेकर नौ तक की अंकावली में नौ अंक सबसे बड़ा है। फिर साधना भी नौ दिन की ही उपयुक्त मानी गई है। किसी भी मनुष्य के शरीर में सात चक्र होते हैं जो जागृत होने पर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं। नवरात्रि के नौ दिनों में से 7 दिन तो चक्रों को जागृत करने की साधना की जाती है। 8वें दिन शक्ति को पूजा जाता है। नौंवा दिन शक्ति की सिद्धि का होता है। शक्ति की सिद्धि यानि हमारे भीतर शक्ति जागृत होती है। अगर सप्तचक्रों के अनुसार देखा जाए तो यह दिन कुंडलिनी जागरण का माना जाता है। इसलिए नवरात्रि नौ दिन की ही मनाई जाती है | प्रथम कथानुसार:- जब भगवान श्री राम लंका पर आक्रमण कर माता सीता को रावण के चंगुल से मुक्त करना चाहते थे, तो ब्रह्माजी ने श्रीराम से रावण वध के लिए चंडी देवी का पूजन कर देवी को प्रसन्न करने को कहा क्योंकि एक तो रावण स्वयं एक ब्राम्हण था, बहुत ही विद्वान था और न केवल शास्त्रों का बल्कि शस्त्रों का भी प्रकाण्ड पण्डित था इसलिए श्रीराम के लिए भी एक सामान्य क्षत्रिय के रूप में रावण को हराना व उसका वध करना सम्भव नहीं था | मान्यताऐं तो ऐसी भी हैं कि रावण इतना शक्तिशाली था कि मृत्यु का देवता यमराज भी रावण के महल के बाहर पहरा दिया करता था। इस स्थिति में एक ब्राम्हण की हत्या से लगने वाले पाप से बचने के लिए श्री राम को ब्रम्हा जी के आशीर्वाद की जरूरत थी। जबकि स्वयं रावण, भगवान शिव का परम भक्त था, इसलिए रावण का वध करने पर भगवान राम को भगवान शिव के कोप को भी सहना पडता। इन कई तरह की अनचाही परिस्थितियों से बचने के लिए ही ब्रम्हाजी ने भगवान राम को चंडी देवी यानी मां दुर्गा का पूजन करने के लिए कहा था क्योंकि मां दुर्गा को ब्रम्हा, विष्णु व भगवान शिव तीनों की शक्ति माना जाता है और जिस पर भी मां दुर्गा का आशीर्वाद होता है, माना जाता है कि उसे ब्रम्हा, विष्णु व भगवान शिव तीनों का आशीर्वाद प्राप्त है। लेकिन क्योंकि रावण भी कम ज्ञानी नहीं था, इसलिए उसे भी पता था कि भगवान राम पर विजय प्राप्त करनी है, तो मां चण्डी के आशीर्वाद की जरूरत उसे भी पडेगी, इसलिए न केवल भगवान राम, बल्कि रावण भी नवरात्रि के दौरान दानवों के गुरू शुक्राचार्य की आज्ञा से माता दुर्गा की उपासना कर रहा था।ब्रम्हाजी के बताए अनुसार भगवान राम को चंडी पूजन और हवन हेतु दुर्लभ एक सौ आठ नीलकमल को माता दुर्गा को अर्पित करना था, इसलिए सौ नीलकमलों की व्यवस्था की गई थी। लेकिन क्योंकि रावण राक्षस कुल से था इसलिए मायावी भी था और जब उसे पता चला कि श्रीराम जी माता चण्डी को प्रसन्न करने के लिए उन्हें एक सौ आठ नीलकमल अर्पित करेंगे, तो उनकी उपासना को खण्डित करने के लिए अपनी मायावी शक्ति से 1 नीलकमल गायब कर दिया। यह बात इंद्र देव ने पवन देव के माध्यम से श्रीराम के पास पहुँचाई और परामर्श दिया कि किसी भी स्थिति में चंडी पाठ जिसे अन्य शब्दों में दुर्गा सप्तशती पाठ भी कहा जाता है, पूर्ण होना ही चाहिए। जब ये बात श्रीराम जी को पता चली तब तक वे अपना पाठ शुरू कर चुके थे और बीच में पाठ को छोडा नहीं जा सकता था, न ही गायब हुए नीलकमल को प्राप्त किया जा सकता था, न ही एक और नीलकमल की व्यवस्था की जा सकती थी। परिणामस्वरूप भगवान श्रीराम जी को अपना एक सौ आठ नीलकमल अर्पित करने का संकल्प टूटता हुआ सा लगने लगा। उन्हें भय इस बात का था कि 1 नीलकमल की कमी से कहीं देवी माँ रुष्ट न हो जाएँ। साथ ही दुर्लभ नीलकमल की तत्काल व्यवस्था भी असंभव थी, तब भगवान राम को सहज ही स्मरण हुआ कि लोग उन्हें इसीलिए "कमलनयन नवकंच लोचन" कहते हैं क्योंकि उनकी आंखें नील कमल की पंखुडियों के समान हैं। इस बात का स्मरण होते ही अपने संकल्प की पूर्ति हेतु अपना एक नेत्र अर्पित करने के लिए तत्पर हो गए और प्रभु राम जैसे ही तूणीर से एक बाण निकालकर अपना नेत्र निकालने के लिए तैयार हुए, देवी चण्डी प्रकट हो गईं और श्रीराम का हाथ पकड़कर कहा कि वे राम की भक्ति से प्रसन्न हैं और श्रीराम जी को विजयश्री का आशीर्वाद दिया। वहीं दूसरी ओर रावण ने भी अमरता के लोभ में विजय कामना से वही चंडी पाठ प्रारंभ किया था व चंडी पाठ के लिए अपने राज्य के महान ब्राम्हणों को नियुक्त किया था, जहां उन ब्राह्मणों की सेवा में एक ब्राह्मण बालक का रूप धरे स्वयं हनुमानजी जुट गए। हनुमानजी की निःस्वार्थ सेवा देखकर चण्डी पाठ करने वाले उन ब्राह्मणों ने हनुमानजी से वर माँगने को कहा। इस पर हनुमान ने विनम्रतापूर्वक कहा- Уप्रभु, यदि आप मेरी सेवा से प्रसन्न हैं तो आप जिस मंत्र से यज्ञ कर रहे हैं, उसका केवल एक अक्षर मेरे कहे अनुसार बदल दीजिए।У माना जाता है कि हनुमानजी स्वयं भगवान शिव का अवतार हैं और भगवान शिव से अधिक शास्त्रों का ज्ञानी अन्य कोई नहीं हैं, इसलिए हनुमान जी चण्डी पाठ के लिए उच्चारित किए जा रहे एक-एक मंत्र का गूढ अर्थ जानते थे, जबकि मंत्रों का इतना गहन ज्ञान उन ब्राम्हणों को नहीं था। सो वे ब्राह्मण, हनुमानजी के इस रहस्य को समझ न सके और तथास्तु कह दिया और हनुमानजी ने चण्डीपाठ के "जयादेवी..... भूर्तिहरिणी...." वाले मंत्र में "ह" के स्थान पर "क" उच्चारित करने का निवेदन किया, जिसे उन ब्राम्हणों ने मान लिया। अब केवल इस एक अक्षर मात्र को बदल देने से भूर्तिहरिणी के स्थान पर ब्राम्हणों ने भूर्तिकरिणी शब्द का उच्चारण करना शुरू कर दिया जबकि "भूर्तिहरिणी" का अर्थ होता है प्राणियों की पीड़ा हरने वाली और "भूर्तिकरिणी" का अर्थ हो गया प्राणियों को पीड़ित करने वाली | उच्चारण के इस परिवर्तन मात्र से माता चण्डी का पाठ विकृत हो गया, जिससे देवी रुष्ट हो गईं और रावण को अमरता प्रदान करने के स्थान पर उसका सर्वनाश करवा दिया। द्वितीय कथानुसार:- नवरात्रि के त्यौहार को मनाने से सम्बंधित एक और पौराणिक कहानी का उल्लेख भी मिलता है, जिसके अन्तर्गत महिषासुर नाम के एक राक्षस का माता दुर्गा द्वारा वध किया जाता है। कथा कुछ इस प्रकार है कि - एक बार दैत्यराज महिषासुर ने कठोर तप करके देवताओं से अजैय होने का वरदान प्राप्त कर लिया। फलस्वरूप महिषासुर ने नर्क का विस्तार स्वर्ग के द्वार तक कर दिया और स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया। देव-दानव युद्ध के दौरान देवताओं और राक्षसों में लगभग सौ वर्ष तक छलबल और शक्ति बल से युद्ध चलता रहा। राक्षसों का राजा महिषासुर नाम का दैत्य था, जबकि देवताओं के राजा इंद्र थे। इस युद्ध में कई बार देवताओं की सेना राक्षसों से पराजित हो गई। एक समय ऐसा आया, जब देवताओं पर विजय प्राप्त करके महिषासुर ने इंद्र का सिंहासन हासिल कर लिया। जब सभी देवता पराजित हो गए, तो वे ब्रह्मा जी के नेतृत्व में भगवान विष्णु और भगवान शंकर की शरण में गए। देवताओं ने बताया कि महिषासुर ने सूर्य, इन्द्र, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, यम, वरुण और अन्य देवताओं के सभी अधिकार छीन लिए हैं और स्वयं स्वर्गलोक का मालिक बन बैठा है तथा देवताओं को महिषासुर के प्रकोप से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ रहा है। ये बात सुन भगवान विष्णु और भगवान शिव अत्यधिक क्रोधित हुए और उनके क्रोध के कारण एक महान तेज प्रकट हुआ। अन्य देवताओं के शरीर से भी एक तेजोमय शक्ति मिलकर उस तेज में मिल गई। यह तेजोमय शक्ति एक पहाड़ के समान थी जिसकी ज्वालाएं दसों-दिशाओं में फैल रही थीं। यह तेजपुंज सभी देवताओं के शरीर से प्रकट होने के कारण एक अलग ही स्वरूप लिए हुए था जिससे इस प्रकाश से तीनों लोक भर गए। तभी भगवान शंकर के तेज से उस देवी का मुख मंडल प्रकट हुआ। यमराज के तेज से देवी के बाल, भगवान विष्णु के तेज से देवी की भुजाएं, चंद्रमा के तेज से देवी के दोनों स्तन, इन्द के तेज से कटि और उदर प्रदेश, वरुण के तेज से देवी की जंघायें और ऊरू स्थल, पृथ्वी के तेज से नितम्ब, ब्रह्मा जी के तेज से देवी के दोनों चरण और सूर्य के तेज से चरणों की उंगलियां, वसुओं के तेज से हाथों की उंगलियां तथा कुबेर के तेज से नासिका यानि नाक का निर्माण हुआ। प्रजापति के तेज से दांत, संध्याओं के तेज से दोनों भौएं और वायु के तेज से दोनों कानों का निर्माण हुआ और इस तरह से सभी देवताओं के तेज से एक कल्याणकारी देवी का जन्म हुआ। चूंकि इन देवी की उत्पत्ति महिषासुर के अंत के लिए हुई थी, इसलिए इन्हें "महिषासुर मर्दिनी" कहा गया। समस्त देवताओं के तेज पुंज से प्रकट हुई देवी को देखकर पीड़ित देवताओं की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। भगवान शिव ने शस्त्र के रूप में अपना त्रिशूल देवी को दिया। भगवान विष्णु ने भी अपना चक्र देवी को प्रदान किया। इसी प्रकार, सभी देवी-देवताओं ने अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र देवी के हाथों में सजा दिये। इंद्र ने अपना वज्र और ऐरावत हाथी से उतारकर एक घंटा देवी को दिया। सूर्य ने अपने रोम कूपों और किरणों का तेज भरकर ढाल, तलवार और दिव्य सिंह यानि शेर को सवारी के लिए उस देवी को अर्पित कर दिया। विश्वकर्मा ने कई अभेद्य कवच और अस्त्र देकर महिषासुर मर्दिनी को सभी प्रकार के बड़े-छोटे अस्त्रों से शोभित किया। अब बारी थी महिषासुर से युद्ध की। थोड़ी देर बाद महिषासुर ने देखा कि एक विशालकाय रूपवान स्त्री अनेक भुजाओं वाली और अस्त्र शस्त्र से सज्जित होकर शेर पर बैठकर अट्टहास कर रही है। महिषासुर की सेना का सेनापति आगे बढ़कर देवी के साथ युद्ध करने लगा। उदग्र नामक महादैत्य भी 60 हजार राक्षसों को लेकर इस युद्ध में कूद पड़ा। महानु नामक दैत्य एक करोड़ सैनिकों के साथ, अशीलोमा दैत्य पांच करोड़ और वास्कल नामक राक्षस 60 लाख सैनिकों के साथ युद्ध में कूद पड़े। सारे देवता इस महायुद्ध को बड़े कौतूहल से देख रहे थे। दानवों के सभी अचूक अस्त्र-शस्त्र देवी के सामने बौने साबित हो रहे थे, लेकिन देवी भगवती अपने शस्त्रों से राक्षसों की सेना को निशाना बनाने लगीं। रणचंडिका देवी ने तलवार से सैकड़ों असुरों को एक ही झटके में मौत के घाट उतार दिया। कुछ राक्षस देवी के घंटे की आवाज से मोहित हो गए। देवी ने उन्हें तुरंत पृथ्वी पर घसीट कर मार डाला। उधर, देवी का वाहन शेर भी क्रोधित होकर दहाड़ मारने लगा। वह राक्षसों की सेना से प्रचंड होकर इस तरह घूमने लगा, जैसे जंगल में आग लग गई हो। शेर की सांस से ही सैकड़ों हजारों गण पैदा हो गए। देवी ने असुर सेना का इस प्रकार संहार कर दिया, मानो तिनके और लकड़ी के ढेर में आग लगा दी गई हो। इस युद्ध में महिषासुर का वध तो हो ही गया, साथ में अनेक अन्य दैत्य भी मारे गए जिन्होंने लम्बे समय से आतंक फैला रखा था। मान्यता ये है कि महिषासुर के साथ माता दुर्गा का ये युद्ध नौ दिनों तक चला था और इसी वजह से माता दुर्गा की स्तुति करने के लिए ही नवरात्रि के इस त्यौहार को नौ दिनों तक मनाया जाता है। |