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जानिए प्रखर कूटनीतिज्ञ आचार्य चाणक्य के बारे में

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आचार्य चाणक्य के बारे में जितना ज्ञान अर्जित करना चाहो, वो भी कम ही पड़ जाता है | आचार्य चाणक्य चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे। उनका जन्म एक घोर निर्धन परिवार में हुआ था | अपने उग्र और गूढ़ स्वभाव के कारण वे "कौटिल्य" नाम से भी विख्यात हैं। माना जाता है कि चाणक्य ने ईसा से 370 वर्ष पूर्व ऋषि चणक के पुत्र के रूप में जन्म लिया था। वही उनके आरंभिक काल के गुरु थे। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि चणक केवल उनके गुरु थे। चणक के ही शिष्य होने के नाते उनका नाम "चाणक्य" पड़ा। उस समय का कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। इतिहासकारों ने प्राप्त सूचनाओं के आधार पर अपनी-अपनी धारणाएं बनाई। परंतु यह सर्वसम्मत है कि चाणक्य की आरंभिक शिक्षा गुरु चणक द्वारा ही दी गई। संस्कृत ज्ञान तथा वेद-पुराण आदि धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन चाणक्य ने उन्हीं के निर्देशन में किया। चाणक्य मेधावी छात्र थे। गुरु उनकी शिक्षा ग्रहण करने की तीव्र क्षमता से अत्यंत प्रसन्न थे। तत्कालीन समय में सभी सूचनाएं व विधाएं धर्मग्रंथों के माध्यम से ही प्राप्त होती थीं। अत: धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन शिक्षा प्राप्त का एकमात्र साधन था। चाणक्य ने किशोरावस्था में ही उन ग्रंथों का सारा ज्ञान ग्रहण कर लिया था।

 चाणक्य ने अपनी शिक्षा "तक्षशिला" में समाप्त की | तक्षशिला उस समय का विश्व-प्रसिद्ध विश्विद्यालय था। देश विदेश के विभिन्न छात्र वहाँ शिक्षा प्राप्त करने आते थे। छात्रों को चरों वेद, धनुर्विद्या, हाथी और घोड़ों का सञ्चालन, अठारह कलाओं के साथ-साथ न्यायशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, सामाजिक कल्याण आदि के बारे में शिक्षा दी जाती थी। चाणक्य ने भी ऐसी ही उच्च शिक्षा प्राप्त की। फलतः बुद्धिमान चाणक्य का व्यक्तित्व तराशे हुए हीरे के समान चमक उठा। तक्षशिला में अपनी विद्वता और बुद्धिमत्ता का परचम फहराने के बाद वह वहीं राजनीतिशास्त्र के आचार्य बन गए। देश भर में उनकी विद्वत्ता की चर्चा होने लगी। 14 वर्ष के अध्ययन के बाद 26 वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी समाजशास्त्र, राजनीती और अर्थशास्त्र की शिक्षा पूर्ण की और नालंदा में शिक्षण कार्य भी किया | चाणक्य राजतंत्र के समर्थक थे, इसलिए उन्हें "भारत का मेकियावली" के नाम से भी जाना जाता है | उन्होने नंदवंश का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाया। उनके द्वारा रचित अर्थशास्त्र राजनीति, अर्थनीति, कृषि, समाजनीति आदि का महान ग्रंन्थ है। अर्थशास्त्र मौर्यकालीन भारतीय समाज का दर्पण माना जाता है। मुद्राराक्षस के अनुसार उनका असली नाम "विष्णुगुप्त" था। विष्णुपुराण, भागवत आदि पुराणों तथा कथासरित्सागर आदि संस्कृत ग्रंथों में तो चाणक्य का नाम आया ही है, बौद्ध ग्रंथो में भी इसकी कथा मिलती है। चाणक्य तक्षशिला के निवासी थे। इनके जीवन की घटनाओं का विशेष संबंध मौर्य चंद्रगुप्त की राज्यप्राप्ति से है। वे उस समय के एक प्रसिद्ध विद्वान थे, इसमें कोई संदेह नहीं किया जा सकता।

चाणक्य की एक प्रचलित कथा के अनुसार, एक बार चाणक्य कहीं जा रहे थे। रास्ते में कुशा नाम की कंटीली झाड़ी पर उनका पैर पड़ गया, जिससे पैर में घाव हो गया। चाणक्य को कुशा पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने वहीं संकल्प कर लिया कि जब तक कुशा को पूर्णतः नष्ट नहीं कर दूंगा तब तक चैन से नहीं बैठूँगा। वे उसी समय मट्ठा और कुदाली लेकर पहुंचे और कुशों को उखाड़-उखाड़ कर उनकी जड़ों में मट्ठा डालने लगे ताकि कुशा पुनः ना उग आये। इस प्रकार पता चलता है कि चाणक्य कितने कठोर, दृढ संकल्प वाले और लगनशील व्यक्ति थे। जब वे किसी काम को करने का निश्चय कर लेते थे तब उसे पूरा किये बिना चैन से नहीं बैठते थे।

कहते हैं कि चाणक्य राजसी ठाट-बाट से दूर एक छोटी सी कुटिया में रहते थे। एक आम आदमी की तरह उनका रहन-सहन था। एक बार यूनान का राजदूत उनसे मिलने राज दरबार में पहुंचा राजनीति और कूटनीति में दक्ष चाणक्य की चर्चा सुनकर राजदूत मंत्रमुग्ध हो गया। राजदूत ने शाम को चाणक्य से मिलने का समय मांगा। आचार्य ने कहा-आप रात को मेरे घर आ सकते हैं। राजदूत चाणक्य के व्यवहार से प्रसन्न हुआ। शाम को जब वह राजमहल परिसर में "आमात्य निवास" के बारे में पूछने लगा। राज प्रहरी ने बताया- आचार्य चाणक्य तो नगर के बाहर रहते हैं। राजदूत ने सोचा शायद महामंत्री का नगर के बाहर सरोवर पर बना सुंदर महल होगा। राजदूत नगर के बाहर पहूंचा। एक नागरिक से पूछा कि चाणक्य कहा रहते हैं। एक कुटिया की ओर इशारा करते हुए नागरिक ने कहा-देखिए, वह सामने महामंत्री की कुटिया है। राजदूत आश्चर्य चकित रह गया। उसने कुटिया में पहुंचकर चाणक्य के पांव छुए और शिकायत की-आप जैसा चतुर महामंत्री एक कुटिया में रहता है। चाणक्य ने कहा-अगर मै जनता की कडी मेहनत और पसीने की कमाई से बने महलों से रहूंगा तो मेरे देश के नागरिक को कुटिया भी नसीब नहीं होगी। चाणक्य की ईमानदारी पर यूनान का राजदूत नतमस्तक हो गया।

उस समय पाटलिपुत्र मगध राज्य की राजधानी थी और वहां घनानंद नाम का राजा राज्य करता था। मगध देश का सबसे बड़ा राज्य था और घनानंद उसका शक्तिशाली राजा। लेकिन घनानंद अत्यंत लोभी और भोगी-विलासी था। प्रजा उससे संतुष्ट नहीं थी। चाणक्य एक बार राजा से मिलने के लिए पाटलिपुत्र आये। वे देशहित में घनानंद को प्रेरित करने आये थे ताकि वे छोटे-छोटे राज्यों में बंटे देश को आपसी वैर-भावना भूलकर एकसूत्र में पिरो सकें। लेकिन घनानंद ने चाणक्य का प्रस्ताव ठुकरा दिया और उन्हें अपमानित करके दरबार से निकाल दिया। इससे चाणक्य के स्वाभिमान को गहरी चोट लगी और वे बहुत क्रोधित हुए। अपने स्वभाव के अनुकूल उन्होंने चोटी खोलकर दृढ संकल्प किया कि जब तक वह घनानंद को अपदस्थ करके उसका समूल विनाश न कर देंगे तब तक चोटी में गांठ नहीं लगायेंगे। जब घनानंद को इस संकल्प की बात पता चली तो उसने क्रोधित होकर चाणक्य को बंदी बनाने का आदेश दे दिया। लेकिन जब तक चाणक्य को बंदी बनाया जाता तब तक वे वहां से निकल चुके थे। महल से बाहर आते ही उन्होंने सन्यासी का वेश धारण किया और पाटलिपुत्र में ही छिपकर रहने लगे।

एक दिन चाणक्य की भेंट बालक चन्द्रगुप्त से हुई, जो उस समय अपने साथियों के साथ राजा और प्रजा का खेल खेल रहा था। राजा के रूप में चन्द्रगुप्त जिस कौशल से अपने संगी-साथियों की समस्या को सुलझा रहा था वह चाणक्य को भीतर तक प्रभावित कर गया। चाणक्य को चन्द्रगुप्त में भावी राजा की झलक दिखाई देने लगी। उन्होंने चन्द्रगुप्त के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल की और उसे अपने साथ तक्षशिला ले गए। वहां चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को वेद-शास्त्रों से लेकर युद्ध और राजनीति तक की शिक्षा दी। लगभग आठ साल तक अपने संरक्षण में चन्द्रगुप्त को शिक्षित करके चाणक्य ने उसे एक शूरवीर बना दिया । उन्हीं दिनों विश्व विजय पर निकले यूनानी सम्राट सिकंदर विभिन्न देशों पर विजय प्राप्त करता हुआ भारत की ओर बढ़ा चला आ रहा था। गांधार का राजा आंभी सिकंदर का साथ देकर अपने पुराने शत्रु राजा पुरू को सबक सिखाना चाहता था।
चाणक्य को आंभी की यह योजना पता चली तो वे आंभी को समझाने के लिए गए। आंभी से चाणक्य ने इस सन्दर्भ में विस्तार पूर्वक बातचीत की, उसे समझाना चाहा, विदेशी हमलावरों से देश की रक्षा करने के लिए उसे प्रेरित करना चाहा; किन्तु आंभी ने चाणक्य की एक भी बात नहीं मानी। वह सिकंदर का साथ देने के लिए कटिबद्ध रहा। कुछ ही दिनों बाद जब सिकंदर गांधार प्रदेश में प्रविष्ट हुआ तो आंभी ने उसका जोरदार स्वागत किया। आंभी ने उसके सम्मान में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया, जिसमें गांधार के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ-साथ तक्षशिला के आचार्य और छात्र भी आमंत्रित किये गए थे। इस सभा में चाणक्य और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त भी उपस्थित थे। सभा के दौरान सिकंदर के सम्मान में उसकी प्रशंसा के पुल बांधे गए। उसे महान बताते हुए देवताओं से उसकी तुलना की गयी सिकंदर ने अपने व्याख्यान में अप्रत्यक्षतः भारतीयों को धमकी-सी दी कि उनकी भलाई इसी में है कि वे उसकी सत्ता स्वीकार कर लें। चाणक्य ने सिकंदर की इस धमकी का खुलकर बड़ी ही संतुलित भाषा में विरोध किया। वे विदेशी हमलावरों से देश की रक्षा करना चाहते थे। चाणक्य के विचारों और नीतियों से सिकंदर प्रभावित अवश्य हुआ लेकिन विश्व विजय की लालसा के कारण वह युद्ध से विमुख नहीं होना चाहता था।
सभा विसर्जन के बाद चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के सहयोग से तक्षशिला के पांच सौ छात्रों को संगठित किया और उन्हें लेकर राजा पुरु से भेंट की । चाणक्य को देशहित में पुरु का सहयोग मिलने में कोई कठिनाई नहीं हुई । जल्दी ही सिकंदर ने पुरु पर चढ़ाई कर दी। पुरु को चाणक्य और चन्द्रगुप्त का सहयोग प्राप्त था, इसलिए उसका मनोबल बढ़ा हुआ था । युद्ध में पुरु और उसकी सेना ने सिकंदर के छक्के छुड़ा दिए; लेकिन अचानक सेना के हाथी विचलित हो गए, जिससे पुरु की सेना में भगदड़ मच गई। सिकंदर ने उसका पूरा-पूरा लाभ उठाया और पुरु को बंदी बना लिया । बाद में उसने पुरु से संधि कर ली। यह देखकर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को साथ लेकर पुरु का साथ छोड़ने में ही भलाई समझी। इसके बाद चाणक्य अन्य राजाओं से मिले और उन्हें सिकंदर से युद्ध के लिए प्रेरित करते रहे । इसी बीच सिकंदर की सेना में फूट पड़ गयी। सैनिक लम्बे समय से अपने परिवारों से बिछुड़े हुए थे और युद्ध से ऊब चुके थे। इसलिए वे घर जाना चाहते थे । इधर बहरत में भी सिकंदर के विरुद्ध चाणक्य और चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में विभिन्न राजागण सिर उठाने लगे थे । यह देखकर सिकंदर ने यूनान लौटने का फैसला कर लिया। कुछ ही दिनों में बीमारी से उसकी मौत हो गई।
अब चाणक्य के समक्ष घनानंद को अपदस्थ करके एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करने का लक्ष्य था। इस बीच चन्द्रगुप्त ने देश-प्रेमी क्षत्रियों की एक सेना संगठित कर ली थी । अतः चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को मगध पर आक्रमण करने को प्रेरित किया। अपनी कूट नीति के बल पर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को मगध पर विजय दिलवाई । इस युद्ध में राजा घनानंद की मौत हो गयी। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को मगध का सम्राट घोषित कर दिया। बड़े जोर शोर से उसका स्वागत हुआ। चन्द्रगुप्त अपने गुरु चाणक्य को महामंत्री बनाना चाहता था किन्तु चाणक्य ने यह पद स्वीकार नहीं किया । वह मगध के पूर्व महामंत्री Сराक्षसТ को ही यह पद देना चाहते थे। किन्तु राक्षस पहले ही कहीं छिप गया था और अपने राजा घनानंद की मौत का बदला लेने का अवसर ढूँढ़ रहा था। चाणक्य यह बात जानते थे। उन्होंने राक्षस को खोजने के लिए गुप्तचर लगा दिए और एक कूटनीतिक चाल द्वारा राक्षस को बंदी बना लिया। चाणक्य ने राक्षस को कोई सजा नहीं दी, बल्कि चन्द्रगुप्त को सलाह दी कि वह उसके तमाम अपराध क्षमा करके उसे महामंत्री पद पर प्रतिष्ठित करे। चाणक्य खुद गंगा के तट पर एक आश्रम बनाकर रहने लगे। वहीं से वह राज्य की रीति-नीति का निर्धारण करते और चन्द्रगुप्त को यथायोग्य परामर्श देते रहते।
अपनी प्रखर कूटनीति के द्वारा आचार्य चाणक्य ने बिखरे हुए भारतीयों को राष्ट्रीयता के सूत्र में पिरोकर महान राष्ट्र की स्थापना की। किन्तु विशाल मौर्य साम्राज्य के संस्थापक होते हुए भी वे अत्यंत निर्लोभी थे। पाटलिपुत्र के महलों में न रहकर वे गंगातट पर बनी एक साधारण-सी कुटिया में रहते थे और गोबर के उपलों पर अपना भोजन स्वयं तैयार करते थे। चाणक्य द्वारा स्थापित मौर्य साम्राज्य कालांतर में एक महान साम्राज्य बना। चन्द्रगुप्त ने उनके मार्गदर्शन में लगभग चौबीस वर्ष राज्य किया और पश्चिम में गांधार से लेकर पूर्व में बंगाल और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में मैसूर तक एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की।
आचार्य चाणक्य द्वारा रचित Сअर्थशास्त्रТ एवं Сनीतिशास्त्रТ नामक ग्रंथों की गणना विश्व की महान कृतियों में की जाती है। चाणक्य नीति में वर्णित सूत्र का उपयोग आज भी राजनीति के मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में किया जाता है।
अति विद्वान और मौर्य साम्राज्य का महामंत्री होने के बावजूद कौटिल्य का जीवन सादगी से परिपूर्ण था। वे "सादा जीवन उच्च विचार" का सही प्रतीक थे। उन्होंने अपने मंत्रित्वकाल में अत्यधिक सादगी का जीवन बिताया। उनकी मान्यता थी कि राजा या मंत्री अपने चरित्र और ऊँचे आदर्शों के द्वारा लोगों के सामने एक प्रतिमान दे सकता है। उन्होंने सदैव मर्यादाओं का पालन किया और कर्मठता की जिंदगी बितायी। कहा जाता है कि बाद में उन्होंने मंत्री पद त्यागकर वानप्रस्थ जीवन व्यतीत किया था। वस्तुतः उन्हें धन, यश और पद का कोई लोभ नहीं था। एक प्रकांड विद्वान तथा एक गंभीर चिंतक के रूप में चाणक्य तो विख्यात है ही, इसी के साथ एक व्यावहारिक एवं चतुर राजनीतिज्ञ के रूप में भी उन्हें ख्याति मिली है। नंदवंश के विनाश तथा मगध साम्राज्य की स्थापना एवं विस्तार में चाणक्य का ऐतिहासिक योगदान है।

चाणक्य ने राज्य की विदेश नीति के सन्दर्भ में कूटनीति के चार सिद्धांतों साम (समझाना, बुझाना), दाम (धन देकर सन्तुष्ट करना), दण्ड (बलप्रयोग, युद्ध) तथा भेद (फूट डालना) का वर्णन किया। चाणक्य के अनुसार प्रथम दो सिद्धांतों का प्रयोग निर्बल राजाओं द्वारा तथा अंतिम दो सिद्धांतों का प्रयोग सबल राजाओं द्वारा किया जाना चाहिए, किन्तु उनका यह भी मत है कि साम दाम से, दाम भेद से और भेद दण्ड से श्रेयस्कर है। दण्ड का प्रयोग अन्तिम उपाय के रूप में किया जाए, क्योंकि इससे स्वयं की भी क्षति होती है।

कौटिल्य ने जिस समाज की अवधारणा की है, उसका प्राण तत्व राजा या राजसत्ता है। राजसत्ता के अभाव में मात्स्यन्याय तथा अराजकता उत्पन्न होती है, परन्तु राजसत्ता पर भी धर्म 


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